संपादकीय

समाज की प्रगतिशीलता पर कोई भी देवता न तो प्रतिबंध लगाता है और न आस्था का ऐसा कोई दस्तूर आज के युग में स्वीकार्य है, फिर भी इनसानी फितरत का भदेसपन हमारे सामाजिक आईने को चकनाचूर कर देता है। कुल्लू के देवसमाज का अभिप्राय मानव इतिहास की सांस्कृतिक ऊर्जा है, लेकिन इसकी छांव में समाज

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव 2019 में आम चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस संभावना को खारिज नहीं किया है। फिलहाल नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस ने राज्यपाल सत्यपाल मलिक के निर्णय को अदालत में चुनौती देने से साफ इनकार कर दिया है। नेशनल कान्फ्रेंस ने तो समर्थन का कोई औपचारिक

इसे हम पूर्व सरकार के फैसले पर चलती कैंची की तरह न लें, तो तेरह नर्सिंग कालेजों को निरस्त करने से सियासत दिखाई नहीं देगी, लेकिन दूसरी ओर घोषणाओं की फेहरिस्त में स्थापित होते सरकारी संस्थान भी तो इसी तर्क से बंधने चाहिएं। सरकार की एक साल की उपलब्धियों में नए कार्यालय व संस्थानों की

मध्यप्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ का जो वीडियो बेनकाब हुआ है, उसके मद्देनजर यह सवाल स्वाभाविक है कि चुनाव एक संवैधानिक या मजहबी प्रक्रिया है? क्या सार्वजनिक तौर पर हिंदू-मुसलमान समुदायों के नाम पर वोट मांगे जा सकते हैं और यह संवैधानिक भी होगा? एक ओर कमलनाथ का दावा है कि हिंदुओं के करीब 80

क्या मुस्लिम वोट किसी नेता या पार्टी की बपौती हो सकते हैं? क्या ओवैसी सरीखे नेता मुस्लिम वोट को कांग्रेस या भाजपा की ओर स्थानांतरित कर सकता है? क्या मुस्लिम वोटों की सौदेबाजी संभव है और सिर्फ उन्हीं के जरिए सत्ता हासिल की जा सकती है? क्या मुस्लिम वोटों की खरीद-फरोख्त के लिए ओवैसी या

जयराम सरकार ने फैसलों की बरसात में राहत और रिश्ते बड़े करीने से सजाए हैं, अतः निर्णायक होने की मुद्रा में नीतियों की कुंडलियां भी खुली हैं। अनधिकृत निर्माण को नियमित करने की दस फीसदी छूट से कई लंबित फाइलों की गांठें खुलेंगी और इस तरह अड़चनों का ठहराव भी टूटेगा। पर्यटन परिवहन क्षेत्र में

जिस कुंडली-मानेसर-पलवल पेरिफेरल एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी ने 19 नवंबर, 2018 को किया है, दरअसल उसे 2010 के दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों से पहले ही बन जाना चाहिए था। पहला सवाल यही है कि यह परियोजना आठ-नौ सालों तक क्यों लटकी रही? अंततः मोदी सरकार ने उसे साकार किया और उद्घाटन का फीता काटा। ऐसी

राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की नजर अगर न पड़ती तो हिमाचली सैरगाहें कभी आगाह नहीं होतीं। वैसे तो विभाग थे और नियम भी, लेकिन हिमाचल का ढर्रा कहां-कहां सुराख कर गया और कहां जारी है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। जो एनजीटी देख या कह रहा है, उससे आज भी हिमाचल अनभिज्ञ प्रतीत होता है।

अमृतसर के अदलीवाल गांव में, निरंकारी सत्संग पर जो ग्रेनेड फेंका गया है, वह आतंकी हमले का ही एक रूप है। कई तो उसकी तुलना कश्मीर के आतंकी हमले से कर रहे हैं। 13 अप्रैल, 1978 को बैसाखी के दिन अमृतसर के ‘निरंकारी भवन’ पर ऐसा ही हमला किया गया था। नतीजतन अकालियों और निरंकारियों